Thursday 4 June 2015

साझा प्रयासों से संवरेगी धरती



आज मानव सभ्यता विकास के चरम पर है। भौतिक एवं तकनीकी प्रगति ने जीवन को बहुत आसान बना दिया है लेकिन भौतिक एवं तकनीकी प्रगति की इस आपसी प्रतिस्पर्धा ने आज मानव जीवन को बहुत खतरे में डाल दिया है।

एक आम धारणा है कि पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, ग्लेशियर के पिघलने से पर्यावरण एवं पृथ्वी को खतरा है लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि सबसे बड़ा खतरा मानव जाति के लिये है। बाकी जीव-जन्तु तो किसी तरह से अपना अस्तित्व बचा सकते हैं लेकिन मनुष्य के लिये यह नामुमकिन है। आज धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिये जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि समस्त मानव जाति है। भारत को विJश्व में सातवें सबसे अधिक पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक देश के रूप में स्थान दिया गया है। वायु शुद्धता का स्तर, भारत के मेट्रो शहरों में पिछले 20 वर्षों में बहुत ही ख़राब रहा है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल 24 करोड़ लोग खतरनाक प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। पूर्व में भी वायु प्रदूषण को रोकने के अनेक प्रयास किये जाते रहे हैं पर प्रदूषण निरंतर बढ़ता ही रहा है ।

इसमें कोई दोराय नहीं है कि अमानवीय कृत्यों के कारण आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है। जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण असंतुलन के चलते भूमंडलीय ताप, ओजोन क्षरण, अम्लीय वर्षा, बर्फीली चोटियों का पिघलना, सागर का जलस्तर बढ़ना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों का बढ़ना आदि विकट परिस्थितियां उत्पन्न होने लगी हैं। यह सारा किया-कराया मनुष्य का है और आज विचलित, चिंतित भी स्वयं मनुष्य ही हो रहा है।

बहरहाल, ग्लोबल तापमान में वृद्धि का सिलसिला जारी है। बीते दो दर्शक में यह स्पष्ट हुआ है कि वैश्वीकरण की नवउदारवादी और निजीकरण ने हमारे सामने बहुत-सी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। जिससे आर्थिक विकास के मॉडल लड़खड़ाने लगे हैं। भूख, खाद्य असुरक्षा और गरीबी ने न केवल गरीब देशों पर असर डाला है बल्कि पूर्व के धनी देशों को भी परेशानी में डाल दिया है। हमारे जलवायु, ईंधन और जैव- विविधता से जुड़े संकटों ने भी आर्थिक विकास पर असर दिखाया है।
ऐसा अनुमान है कि सन‍् 2050 तक विश्व की जनसंख्या में 2.3 अरब की वृद्धि और जुड़ जाएगी। तब धरती पर भार और बढ़ जाएगा। वैसे भी भारत में जनसंख्या-नियंत्रण के उपाय बहुत सफल नहीं रहे। अत: अब जनसंख्या-नियंत्रण और प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के अलावा जीवनशैली में बदलाव भी नितान्त आवश्यक है। हम धरती से लेना तो जानते हैं पर बदले में उसे कुछ देना नहीं चाहते, इसलिए वह विनाशोन्मुखी हो चली है।
बहरहाल, ग्लोबल वार्मिंग यानी जलवायु परिवर्तन आज पृथ्वी के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया है। आज भी कार्बन-डाईआक्साइड उत्सर्जन करने वाले देशों में 70 प्रतिशत हिस्सा पश्चिमी देशों का ही है जो विकास की अंधी दौड़ का परिणाम है। लेकिन विकासशील एवं अविकसित देशों को ग्लोबल वार्मिंग का भूत दिखाकर उन्हें ऐसा करने से रोकने का प्रयास किया जा रहा है। हालांकि प्रत्येक साल इस गम्भीर समस्या को लेकर विश्व स्तर पर शिखर सम्मेलन का भी आयोजन किया जाता है, लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात ही रहते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान विकसित देशों का ही है, मगर वे इस पर जरा भी कटौती नहीं करना चाहते। असल में जलवायु परिवर्तन एक ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिन्ता की बात है और इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता।
आज विश्वभर में हर जगह प्रकृति का दोहन जारी है। कहीं फैक्टरियों का गंदा जल हमारे पीने के पानी में मिलाया जा रहा है तो कहीं गाड़ियों से निकलता धुआं हमारे जीवन में जहर घोल रहा है । दरअसल, वैश्वीकरण से उपजे उपभोक्तावाद ने मनुष्य की संवेदनाओं को सोखकर उसे निर्मम भोगवादी बना दिया है। अब वैश्विक तर्ज पर विभिन्न दिवस और सप्ताह का आयोजन कर लोगों की संवेदनाओं को जगाना पड़ रहा है ताकि वे अपने वन और वन्य प्राणियों को बचायें, नदियों-तालाबों को सूखने न दें, जल का संरक्षण करें, भविष्य के लिए ऊर्जा की बचत करें। और तो और, धरती को बचाने के लिए गुहार लगानी पड़ रही हैै।
इस विषम स्थिति में अपने जीवन की रक्षा के लिए भी हमें धरती को बचाने का संकल्प लेना होगा। लेकिन दुखद स्थिति यह है कि न तो विश्व स्तर पर कोई जागरूकता दिखाई गई और न राजनीतिक स्तर पर कभी कोई ठोस पहल की गई। दरअसल, पृथ्वी एक बहुत व्यापक शब्द है, इसमें जल, हरियाली, वन्य प्राणी, प्रदूषण और इससे जुड़े अन्य कारक भी शामिल हैं।
धरती को बचाने का आशय है इन सभी की रक्षा के लिए पहल करना लेकिन इसके लिए किसी एक दिन को ही माध्यम बनाया जाए, क्या यह उचित है? हमें हर दिन को पृथ्वी दिवस मानकर उसके बचाव के लिए कुछ न कुछ उपाय करते रहना चाहिए।

भारत और अमेरिका के बीच 10 साल का रक्षा समझौता



आपसी रक्षा समझौतों को नई शुरुआत देते हुए भारत और अमेरिका ने बुधवार को 10 साल के रक्षा फ्रेमवर्क समझौते पर दस्तखत किए. इसके तहत दोनों देश जेट इंजन, एयरक्राफ्ट बैरियर के डिजाइन और निर्माण समेत रक्षा उपकरणों का मिलकर उत्पादन और विकास करेंगे. दोनों पक्षों ने दो परियोजना समझौतों को भी आखिरी रूप दिया है. इसके तहत हाईटेक मोबाइल ऊर्जा स्रोत और रसायनिक एवं जैविक युद्ध के लिए अगली पीढ़ी के रक्षात्मक सूट विकसित किए जाएंगे. इस समझौते पर फैसला अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की जनवरी में भारत यात्रा के दौरान हुआ था. यह समझौता समुद्री सुरक्षा, विमानवाहक पोत से लेकर जेट इंजन प्रौद्योगिकी सहयोग के मुद्दों पर केंद्रित है. इस समझौते पर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और भारत दौरे पर आए अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ने हस्ताक्षर किए. रक्षा मंत्रालय की ओर से जारी एक आधिकारिक बयान में कहा गया, रक्षा मंत्री और सचिव कार्टर ने भारत-अमेरिका रक्षा संबंध रूपरेखा 2015 पर हस्ताक्षर किया जो पूर्ववर्ती रूपरेखा और कामयाबियों से आगे बढ़ेगा और द्विपक्षीय और रणनीतिक साझेदारी को अगले 10 साल के लिए निर्देशित करेगा. बयान में कहा गया है कि नया रूपरेखा समझौता उच्च स्तर की रणनीतिक चर्चाओं के लिए नयी ऊंचाइयां प्रदान करेगा. दोनों देशों के सशस्त्र बलों के बीच अदान प्रदान तथा रक्षा क्षमताओं को मजबूती प्रदान करेगा. सह-विकास और सह-उत्पादन पर सहमति इसके अलावा पर्रिकर और कार्टर ने जेट इंजन, विमानवाहक डिजाइन और निर्माण पर चर्चाओं को तेज करने पर सहमति जताई. बयान में कहा गया कि भारत और अमेरिका दोनों ने मोबाइल इलेक्ट्रिक हाइब्रिड पावर सोर्सेज और नेक्स्ट जेनरेशन प्रोटेक्टिव इंसेम्बल्स के संयुक्त विकास के लिए दो परियोजना समझौतों को अंतिम रूप दिया है. दोनों पक्षों ने सह-विकास और सह-उत्पादन परियोजनाओं को आगे बढ़ाने पर सहमति जताई जो अमेरिकी रक्षा उद्योगों को 'मेक इन इंडिया' के तहत भारतीय उद्योगों के साथ साझेदारी बनाने का सुनहरा मौका प्रदान करेगा. कार्टर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मुलाकात की और रणनीतिक एवं रक्षा हित बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा की.